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१५०: धर्मविन्दु
(४) एकत्वभावना- जीव अकेला ही उत्पन्न हुआ, अकेला ही मरेगा, अकेला ही कर्भका कर्ता है तथा अकेला ही भोका है। धर्मको छोड कर कुछ भी सहायकारी नहीं। सभी विचार व कार्योंसे हुआ कर्मका फल खुद ही भोगना पडता है। प्रत्येक कार्य, विचार और वासनाका स्वय उत्तरदायी है। ममत्वकी व्याधिको मिटानेके लिये सम्यग् ज्ञान ही महौषधि है। सत् , असत् , नित्य, अनित्यका विवेक ही ममताको नाश करनेवाला है। ममता मोह राजाका मन्त्र है। ममत्वसे ससार भ्रमण बढता है अतः आत्मज्ञान व एकत्वभावना बढाना चाहिये ।
(५) अन्यत्वभावना- आत्माके सिवाय सब वस्तुएं पराई हैं। देह, धन, स्वर्ण, गृह आदि सब वस्तुए अन्य हैं। ये सब
आत्मद्रव्य से भिन्न हैं । जीव पुद्गलसे भिन्न है। सब पदार्थ पुदगलके रूपांतर हैं, यह अन्यत्वभावना है। .. (६) अशुचिभावना- शरीर ही सब कुछ है ऐसा जडवादी मानते हैं, जो मूल है । शरीर तो वन है। यह शरीर तो अपवित्र है, मल मूत्रसे भरा हुआ है। उस पर राग न रखे । उसे अशुचिभावना कहते हैं। तब भी वह ज्ञानप्राप्ति व धर्मक्रियाका साधन है। शरीर नौकर समान हैं। उसे वशमें भी रखना चाहिये तथा अनादर भी नहीं करना चाहिये ।
(७) आश्रवभावना- जीव प्रति क्षण शुभ या अशुभ कर्मका बंध करता रहता है। कर्मबन्धके हेतु मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व