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गृहस्थ देशना विधि : १४१ कामका आत्मासे तथा आत्माके कार्यका देहसे जो सुख, दुःखका अनुभव होता है, इष्टस्य-शास्त्रसिद्ध वस्तुका।
देहद्वारा किये हुए का आत्माद्वारा तथा आत्माका, किये हुए का देहद्वारा सुख, दुःखका अनुभव करना प्रत्यक्ष है यह सव जानते हैं। जैसे देहकृत चोरी, व्यभिचार आदि अनाचारोंसे बंदीखाना आदि स्थानमें अधिक समय तक शोक आदि दुःखका अनुभव आत्माको करना पडता है और मनके क्षोभ या चिन्तासे ज्वर, संग्रहणी आदि रोग होते हैं जिनका कष्ट शरीरको भोगना पड़ता है तथा मुक्ति और उसे पानेके लिये करनेमें आते अनुष्ठान क्रिया आदि इष्ट वस्तुको भी बाधा पहुंचती है । इस तरह दृष्ट मान्यता कि. मात्मा व शरीर भिन्न है, सिद्ध नहीं होती। वह नास्तिकका लक्षण है।
इसका आशय यह है कि आत्मा द्रव्यनयसे नित्य, पर्यायनयसे अनित्य, व्यवहारनयसे शरीरसे अभिन्न तथा निश्चयनयसे शरीरसे भिन्न मानना।
इस प्रकार सर्वथा नित्य या अनित्य और सर्वथा शरीरसे भिन्न या अभिन्न आत्माको अंगीकार करनेसे हिंसा आदि दोपका असंभव होता है, अतः एकांतवादका इस प्रकार खंडन करके अब शास्त्रकार इस विषयका उपसंहार करते हैं। कहते हैं किअतोऽन्यथैतसिद्धिरिति तत्त्ववादइति ॥६४॥ (१२२)
मूलार्थ- इससे भिन्न आत्माको माननेसे बंध व मोक्षकी सिद्धि होती है वह तत्ववाद है ॥६४॥