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१४४ : धर्मविन्दु
विवेचन-भव्यत्व-सिद्धिमें जानेकी योग्यता, जो अनादि कालसे आत्माका परिणामी भाव है या स्वभाव है वह आत्माका मूल तत्त्व है । तथा भव्यत्व एक रूप नहीं, उसके अनेक भेद हैं। बीज सिद्धिके भावसे भव्यत्व काल, नियति, कर्म और पुरुषको लेकर नाना प्रकारका है। काल-पुद्गल परावर्त तथा उत्सर्पिणीसे गिना जाता है। जैसे वसंत आदि ऋतु वनस्पतिको विशेष फल देनेवाली है। उसी तरह काल भव्यत्वका फल देनेवाला है। उत्सर्पिणी अधिक अनुकूल है तब भी नियतिकी जरूरत है। नियति-कालको निश्चितरूपसे नियत करनेवाली है। पुण्यकर्म या शुभ कर्मकी जरूरत रहती है। क्लेशको दूर करनेवाला नानाविध शुभ आशयका अनुभव करानेवाली कुशलानुबंधी पुण्य कर्मकी जरूरत होती है।
जिसने बहुत पुण्य भंडार एकत्रित किया है, महान कल्याणकारी आशयवाला, प्रधान ज्ञानवाला, तथा प्ररूपित अर्थको जानने में कुशल वह मोक्षाधिकारी पुरुष है । उस मोक्षाधिकारी पुरुषमें काल, नियति व कर्म हो तब वे सफल होते है।
यह भव्यत्व आदि चारों बातोंके होनेसे उसे वर बोधिलाभ, श्रेष्ठ बोधिवीज या समकितकी प्राप्ति होती है । सम्यक्त्वका स्वरूप जीवादि पदार्थ पर श्रद्धा है।
अब उसका फल कहते हैंग्रन्थिभेदेनात्यन्तसंक्श इति ॥६९।। (१२७)
मूलार्थ- ग्रन्थि (राग-द्वेष) को छेद देनेसे अत्यन्त संक्लेश (पूर्व कठोरता) नहीं होता। .