________________
१३४ : धर्मविन्दु सर्वथा एक ही रूप नहीं रहता, न सर्वथा विनाश ही होता है। उसे विद्वान परिणाम कहते हैं
ऐसे परिणामवाला आत्मा परिणामी है, पूर्वोक्त हिंसादि पदार्थ उसके द्वाग होते हैं। वह देहसे भिन्न है, देहसे अभिन्न भी है।
अन्यथा तदयोग इति ॥५४॥ (११२) मूलार्थ-अन्यथा हिंसादिका उससे अयोग होता है ॥५४॥
विवेचन-यदि यह परिणामी आत्मा देहसे भिन्न तथा अभिन्न न हो तो वधके हेतु अहिंसा आदि आत्मासे कोई संबंध नहीं हो सकता। ऐसा क्यो ? कहते हैंनित्य एवाविकारतोऽसंभवादिति ॥५५॥ (११३)
मूलार्थ-नित्य अविकारी आत्माद्वारा दोषोंका होना असंभव है ॥५५॥
विवेचन-नित्य एव-नित्य आत्मा, च्युत न होनेवाला, उत्पत्ति विना स्थिर स्वभाववाला, अविकारतां-तिलके तुषके तृतीयाश अर्थात् ऐसे सूक्ष्म भागका भी पूर्व स्वरूपका नाश न होनेसे, असंभवात-हिंसादि दोषकी घटना न होना।
यदि आत्माको एकांत नित्य मानें, जो न मरे न पैदा हो पर सदा एक स्वभावमे स्थिर रहे । द्रव्यनयसे ऐसा माननेसे यदि आत्मा एक स्वभावका हा हो तो उसमें जरा भी विकार न आवे। ऐसा होने पर उसके द्वारा हिंसा आदि दोपका होना सभव ही नहीं। यदि कुछ भी नाश न हो, एक स्वभाव हो तो क्रोधादि हो ही नहीं सकते । (यह नित्य आत्माके लिये कहा है)।