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गृहस्थ देशना विधि : १३३ करनेके समय तथा समाप्तिके समयमें निश्वयनयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । कुछ काम तत्काल हुए हैं या हो रहे हैं या हो चुकते हैं और कुछ होते रहते हैं ये सब काम होते हैं एसा कहा जायगा । किसी भी एक कार्यकी समाप्ति व दूसरे कार्यके प्रारंभ में कोई खास समयका भेद नहीं होता । वह चलता रहता है जैसे गंगानदीका प्रवाह है वह अनंत समय से - अनादिकाल मे चलता आ रहा है । उसी तरह कर्म भी अनादिकालसे चलते आ रहे हैं अतः प्रवाहकी अपेक्षा कर्मबन्ध भी अनादि है । जिस आत्माको पूर्वोक्त बन्धका हेतु होता है उस आत्माको अन्वय तथा व्यतिरेकसे कहते है-परिणामित्यात्मनि हिंसादयो, भिन्नाभिन्ने च देहादिति ॥ ५३ ॥ (१११) मूलार्थ - देहसे कुछ भिन्न व अभिन्न ऐसे परिणामी आत्मासे हिंसादिक बंध होता है ॥५३॥
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विवेचन - आत्मा परिणामी है । द्रव्यरूपसे एक ही पदार्थ हैं, वह वैसा ही रहता है पर उपाधिसे भिन्न भिन्न परिणाम पाता है । उसका रूपान्तर होता है । जैसे स्वण एक ही वस्तु है पर वह बनानेसे माला, अंगूठी तथा अन्य आभूषणके रूप में आता है । उसी तरह जीव पदार्थ एक होने पर भी कर्मवश भिन्न भिन्न पर्याय (योनि) पाता है | कहा है कि—
" परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः " ||२२|| - परिणाम एक स्वरूको छोड़कर दूसरेमे परिवर्तन होता है ।