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१३२ : धर्मविन्दु
विवेचन-प्रवाहत:-परंपरासे, अनादिमान्-आदि बंध काल रहित-अनादि समयसे । ___ कर्मका बन्ध अनादि कालसे है। कर्मसे मुक्त आत्मा किसी भी समय नहीं था। किसी एक कर्मका समय निर्धारित किया जा सकता है। पुराने कर्म छूटते जाते हैं, नये बंधते जाते हैं । अतः परंपरा व प्रवाहसे अनादिकालसे जीव कर्मके बन्धनमें है। जीव व कर्मका वन्धन अनादिकालसे है। कृतकत्वेऽप्यतीतकालबदुपपत्तिरिति ॥५१।। (१०९)
मूलार्थ-बन्धका कारण होने पर भी वह अतीतकालकी तरह समझना ॥५१॥ विवेचन-तकत्वेऽपि-कर्मके वंधका कारण जानने पर भी।
वंधके हेतुसे बंधकी उत्पत्ति होती है। तब भी वधकी घटना, अनादिकालमें हुई यह जानना। कारण तो केवल निमित्त है उसका उत्पत्तिका कारण तो हृदयम रहा हुआ अशुद्ध भाव है। बन्ध प्रतिक्षण किया जाता है तब भी प्रवाहकी तरह चलते आते हुए होनेसे वह अतीतकालकी तरह ही अनादि समयसे है। उसका प्रारंभ भी कालके प्रारंभकी तरह अनादि है। वर्तमानताकल्पं कृतकत्वमिति ॥५२॥ (११०)
मूलार्थ-वर्तमानकालकी तरह बन्ध भी किया हुआ है। विवेचन-जैसे अतीतकाल व वर्तमानलका संबंध है- आपसमें एक दूसरेसे पारस्परिक अमेध संबंध है वैसे ही बन्धका भी समझना।