________________
गृहस्थ देशना विधि : १५ शुद्ध श्रद्धासे शुद्ध कार्य होता है और शुद्ध कार्य परंपरासे मोक्ष प्राप्ति होती है। अतः जन शंका हो तब योग्य गुरुसे शंकारहित होकर शुद्ध प्रवृत्ति करना। .. । ।
२. निष्कांक्षित-दर्शनाचारका द्वितीय भेद कोक्षारहितता' है । उसके भी दो भेद है। 'देशकांक्षा व सर्वकांक्षा'। दिगंबर आदि किसी एक दर्शनकी आकांक्षा करे, उस दर्शनका अंगीकार करनेकी इच्छा करे वह देशकांक्षा, उसी प्रकार सर्व दर्शनोंकी आकांक्षा करे सर्वकांक्षा । वह अन्य शास्त्रोसें पिड्जीवनिकायपीडा तथा असत्प्ररूपणाको नहीं देखता । ऐसी कांक्षाओंसे, रहित होना 'निष्कांक्षित दर्शनाचार' है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य सन धर्म चुरे है। अपेक्षासे तथा अंशतः सत्य सब धर्मोमे है। जहां जहां जितना सत्य व सगुण हो उसे ग्रहण करना ही जैन दृष्टि है। अशोकके शिक्षाठेखोंमें भी ऐसा मिलता है। "अन्य धर्मों पर आक्षेप नहीं करना, तथा निष्कारण अन्य धर्मोकी अप्रतिष्ठा नहीं करना" पर स्वधर्मसे भविचल श्रद्धा रक्खे। .
३. निर्विचिकित्सा-बुद्धिमे विभ्रम यां भ्रांतिको विचिकित्सा कहते है। उस भ्रांतिसे रहितता निर्विचिकित्सा है। जैसे-जिनदर्शन तो अच्छा है इसमें प्रवृत्ति करनेसे मुझे फल होगा या नहीं ? जैसे खेती आदिमें फलकी प्राप्ति व अप्राप्ति दोनों होते हैं। इस प्रकार के संकल्प विकल्पको विचिकित्सा या भ्रांति कहते हैं। इसे छोड देना चाहिये। "जैसा बोयेंगे वैसा काटेंगे" या "जो 'कर्म करोगे वैसे भरोगे" इसे आधारभूत समझ कर कार्य करना चाहिये।