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गृहस्थ देशना विधि:१११ "तः कर्मभिः स जीवो, विवशः संसारचक्रमुपयाति। द्रव्यक्षेत्राद्धाभावभिन्नामावर्तते बहुशः" ॥७३॥
-कर्मके वश हुआ जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावसे भिन्न भिन्न भेद पाकर इस संसारचक्रमें बार बार परिभ्रमण करता है अर्थात् द्रव्य पुद्गल परावर्तन, क्षेत्र पुद्गल परावर्तन, काल पुद्गल परावर्तन तथा भाव पुद्गल परावर्तन बहुत बार करता रहता है। (पुद्गल परावर्तनका लक्षण 'प्रवचनसारोद्धार में लिखा है)। ___अत जिस असदाचारसे यह सब कर्म बन्धन होता है उसे त्याग करनेकी प्रवृत्ति करना चाहिये ।
तथा-उपायतो मोहनिन्देति ॥२७॥ (८५) मूलार्थ-और उपायसे मोहकी निन्दा करे।
विवेचन-उपायतः-उपायसे, अनर्थ प्रधान मूढ पुरुषोंके लक्षणोंको विस्तारपूर्वक बताना । मूढताकी निन्दा करे-उसे अनादर करने योग्य बताना।
__ मोहकी-मूर्खता या अज्ञानकी, उपायसे-मूखोंके लक्षणोंको विस्तारसे बता कर निन्दा करे। उसे अनादरणीय बताना चाहिये।
"अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च। कर्म चारभते दुधं तमाहुर्मूढचेतसम्" ॥४॥
-जो अमित्र या शत्रुको मित्र माने, मित्रका द्वेष या हनन करे, तथा दुष्ट कर्मका प्रारंभ करे उसे मूर्ख या अज्ञानी कहते हैं।