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११८ : धर्मविन्दु
मस्त पवेह, ये श्रुतज्ञानचक्षुपा । सम्यक् सदैव पश्यन्ति भावान् हेयेतरान् नराः " ॥८६॥ - जो पुरुष इस जगतमें हेय तथा इतर ( ग्राम व अग्राह्य ) पदार्थों को श्रुतज्ञान रूप चक्षुसे सम्यकू प्रकारसे देखते हैं वे ही वस्तुत नेत्र वाले हैं ॥८६॥
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यह श्रुत ( सिद्धात ) प्रत्येक दर्शनमे भिन्न भिन्न प्रकारसे प्रतिपादित है तो किस दर्शनका कौनसा श्रुत अंगीकार करने योग्य है उसके उत्तर में कहते है
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बहुत्वात् परीक्षावतार इति ||३३|| (९१) मूलार्थ - श्रुतधर्म बहुत है अतः उत्तमकी परीक्षा में उतरे । विवेचन - श्रुतधर्म ( सिद्धात ) बहुतसे है उनमे श्रुतधर्म शब्द सामान्य है अतः कौनसा सत्य है तथा कौनसा मिथ्या है यह पता नहीं लगता अतः पुरुषकी बुद्धि चकित हो जाती है | अतः जैसे स्वर्णकी परीक्षा कप, छेद व तापसे होती है वैसे ही तीन प्रकारसे श्रुतकी भी शुद्धि करके परीक्षा करनी चाहिये । कहा है कि
" तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्म, विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति । स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदैः, विभिद्यते क्षीरमिवार्चनीयः " ॥८७॥
" लक्ष्मीं विधातुं सकलां समर्थ,
सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनम् । परीक्ष्य गृहन्ति विचारदक्षाः, सुवर्णवद् वञ्चनभीतचि ताः " ॥८८॥