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१२८ : धर्मविन्दु
मूलार्थ-इस (बंध, मोक्षकी युक्ति का आधार बंधनेवाले जीव और वन्धन पर है ।।४६॥ .
विवेचन-आत्मा कर्भवन्धनसे बांधी जाती है। उस कर्मबन्धनके होनेसे (वह स्थित होनेसे ) आत्माके बन्ध व मोक्षकी युक्तिका आधार बनता है । बध व मोक्ष कहना तभी सत्य है जब आत्माका बंधन होता है और उसका मोक्ष होता है। यदि आत्मा मुक्त हो तो बंध व मोक्ष कहना ही अयोग्य होगा। ___ कर्म जीवको बाधते है यह माननेसे ही मिथ्यात्व, कषाय आदिसे कर्मबन्धन होता है यह सत्य सिद्ध होता है। यदि आत्मा बंधता ही नहीं तो उसका मुक्त होना ही क्या ।
इसका हेतु क्या है। कहते है-- __ कल्पनामात्रमन्यथेति ॥४७॥ (१०५) मूलार्थ-अन्यथा यह युक्ति कल्पना मात्र है ॥४७॥
विवेचन-जिस कारणसे यह केवल कल्पना है वह असत्य अर्थका आभास है। उसमें अर्थका आभास भी नहीं है। मुख्य कर्म बांधनेवाला जीव और बन्धन (कर्म)का अभाव हो तो यह सब बंध, मोक्षकी युक्ति कल्पनामात्र है। यदि आत्मा मुक्त ही है तो आगम कल्पनाजनित व निरर्थक हैं । अत. आत्मा बंधता है। वध्यमान व बन्धन (कर्म व आत्मा)की व्याख्या करते हैवध्यमान आत्मा बन्धनं वस्तुसत्
'कर्मेति ॥४८॥ (१०६)