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गृहस्थ देशना विधि : १२९ मूलार्थ - बंधनेवाला आत्मा और बांधनेवाले विद्यमान कर्म हैं ||४८ ||
विवेचन – बध्यमानः - अपना सामर्थ्य शक्ति गुमा कर परवशताको प्राप्त होनेवाला आत्मा, आत्मा जो चौदह भेदवाला जीव कहलाता है । यह चौद भेद यह है - सूक्ष्म व चादर एकेन्द्रिय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिन्द्रिय, और गर्भज व समूच्छिम पंचेंद्रिय - ये ७ पर्याप्ता और ७ अपर्याप्ता ये चौद मेद जीवके है । बन्धनम् - मिथ्यात्व आदि हेतु से आत्माको बाघनेवाला, वस्तुसत् - विद्यमान, यथार्थ वस्तु, कर्म - ज्ञानावरणादि कर्म जो अनतानंत परमाणुओंके समूहरूप स्वभाववाला है तथा जो मूर्त प्रकृति या मूर्त्तिमान है । (साक्षात् वस्तु - यथार्थ पदार्थ ) |
आत्मा मिथ्यात्व आदि कारणोंसे कर्मोद्वारा बंधता है । कर्म विद्यमान है व सत्यवस्तु है । आत्मा के चौदह भेद है। ज्ञानावरणादि कर्मके परमाणु जैसे जीव कर्म करता है वैसे ही आकर्षित होकर राग-द्वेषकी चिकनाईके कारण उस पर चिपक जाते है ।
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'सांख्यमत ' में इस प्रकार कहा
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'आत्मा न बद्ध्यते नापि, मुच्यते नापि संसरति कञ्चिद् । संसरति वद्धयते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः" ॥८९॥
- आत्मा बंधता नहीं, मुक्त नहीं होता और न संसारमें भ्रमण करता है पर विचित्र प्रकारके आश्रयवाली प्रकृति ही भ्रमण करती है, बंघती है व मुक्त होती है ।
यदि प्रकृतिका ही बंध और मोक्ष होता है तथा आत्मा निर्लेप