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गृहस्थ देशना विधि : १२७ सकता । अतः उसका ( अतत्त्ववेदी या अर्धज्ञानीका) कहा हुआ अविपरीत कैसे हो सकता है।
सम्यग्वाद यह है ऐसा कैसे जानना उस उपायको कहते हैंबन्धमोक्षोपपत्तितस्तच्छुद्धिरिति ॥४६॥ (१०३) , मूलार्थ-वन्ध और मोक्षकी सिद्धिसे सम्यग्वादकी शुद्धि जानना ॥४५॥
विवेचन-बन्ध-मिथ्यात्व आदि कारणोंसे जीवका कर्म पुद्गलोके साथ अभिन्न पारस्परिक बन्धन जैसे तप्त लोहेमें अग्नि या क्षीर व नीरका अभिन्न बन्धन, जिनका भेद न किया जा सके। मोक्षसम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रसे कर्मका अत्यन्त छेद या पूर्ण क्षय । उपपत्ति-होना, तच्छुद्धि:-उसे शुद्ध जानना ।
जिस धर्ममें आत्माका बन्ध व मोक्षका इस प्रकारका वर्णन है वही सम्यग्वाद है। जैसे दूध व पानी अविभाज्यरूपसे मिले हैं वैसे ही आत्मा तथा कर्म पुद्गल मिले हुए हैं। मिथ्यात्व, कषाय. प्रमाद व योगसे कर्मबन्ध होता है। सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्रसे कर्म छूटकर आत्माकी मुक्ति होती है। जिस धर्ममें यह वन्ध व मोक्ष कहा है तथा आत्मा बन्ध व मोक्षके योग्य है ऐसा कहा है वही वस्तुवाद निर्मल है । वह धर्म सर्वज्ञद्वारा प्रणीत है ऐसा विद्वानोंका निश्चित मत है। इस बन्ध, मोक्षकी सिद्धिकी युक्तिका आधार कहते हैं
इयं वध्यमानबन्धनभाव इति ॥४६॥ (१०४)