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११६: धर्मविन्दु
विवेचन-वीर्यके, शक्तिके-उत्कृष्ट रूपका जो शुद्ध आचारके बलसे प्राप्त होता है तथा अततः बढ कर तीर्थकरके वीर्य तक पहुंचता है उसका वर्णन करे। अनुचित व्यय नहीं करनेवालेकी वीर्यवृद्धि होती है। विचार शुद्धिसे विचारवल, सदाचारसे आत्मवीर्य तथा शरीर बलकी वृद्धि होती है । उसका वर्णन ऐसे करे जैसे
" मेरुं दण्डं धरां छन, यत् केचित् कर्तुमीशते । तत्सदाचारकल्पगुफलमाहुमहर्पयः" ॥८५॥
-महर्षि कहते हैं कि जो मेरुको दण्ड तथा धरा (पृथ्वी, को छत्र बनानेका सामर्थ्य पाते है वह सब सदाचाररूप कल्पवृक्षका फल है, अत सदाचार सेवन करे। तथा-परिणते गम्भीरदेशनायोग इति ॥३।। (८९)
मूलार्थ-और (उपदेश )से शुद्ध परिणाम होने पर गंभीर देशना देना चाहिये ॥३१॥
विवेचन-परिणते-आत्मीय भाव होना या आत्मासे एक रस होना, गम्भीर- उपरोक्त देशनासे अधिक व अत्यन्त सूक्ष्म जैसे भामा, उसका अस्तित्व, कर्मबन्ध, मोक्ष आदिकी।
जब श्रोता उपरोक्त उपदेशका यथार्थ ज्ञान व श्रद्धाकी प्राप्ति करके उस रीतिसे अनुष्ठान या आचरण करने लगे और यह उपदेशका ज्ञान व श्रद्धा उसकी आत्माके साथ एक रस हो जावे तब अधिक गंभीर उपदेशके लायक हो जाता है। गंभीर देशना या पूर्वोक्त उपदेशसे अधिक सूक्ष्म अर्थात् आत्माका अस्तित्व, उसका