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गृहस्य देशना विधि : ११७ बन्ध व मोक्ष आदिका वर्णन हो। इसका अर्थ यह है कि पहले सामान्य गुण और बादमें विशेष गुणकी प्रशंसा की जावे वह उसके हृदयंगम हो कर उसके अनुसार आचरण करे तब अधिक सूक्ष्म देशना देवे । वोधके असरका फल आचरण होता है तमी सूक्ष्म देशना देवे । जैसे एक बारका खाना पाचन होने पर ही खानेसे शरीर सुखी रहता है, वैसे ही अनेक प्रकारसे दिया हुआ सामान्य गुणका उपदेश, आवरण करनेवाले कर्मोका ह्रास होकर मंगांगी भावरूप परिणामको पावे तभी वह देशनाके योग्य होता है।
इस गंभीर देशनाका योग श्रुत और धर्मके कथन बिना नहीं होता । कहते हैं
श्रुतधर्मकथनमिति ॥३२॥ १९०) मूलार्थ- श्रुतधर्मका कथन करना ॥३२॥ विवेचन-श्रुतधर्मस्य-सिद्धांतका, कथनम्-उपदेश ।
सिद्धांत व ( श्रुतधर्म ) का उपदेश करे। उसका लक्षणवाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथन है। वे इस प्रकार हैं-गुरुका प्रथम उपदेश वाचना है। संदेइमें विनयसे गुरुको पूछना पृच्छना है। पूछ लेने पर भूल न हो अतः फिर सम्हालनेको परावर्तना कहते हैं। सूत्रकी तरह अर्थका चिंतन अनुप्रेक्षा और अभ्यास किये हुए सूत्रका दूसरेको उपदेश देना धर्मकथा कहलाता है। इन लक्षणों युक्त सिद्धीतका-श्रुतधर्मका जो सर्व मंगल समूहरूप कल्पवृक्षके विशाल क्यारी- समान है, कथन करे। जैसे--