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गृहस्थ देशना विधि : ११५
विवेचन - पुरुषकारस्य - उत्साहरूप पुरुषार्थ या उद्योग |
सत्कथा - महात्म्य - प्रशंसा ।
उत्साह रूप पुरुषार्थ के माहात्म्यकी प्रशंसा करे। जैसे" दुर्गा तावदिय समुद्रपरिखा तावन्निरालम्बनं,
व्योमन्ननु तावदेव विषमः पातालयात्रागमः । दत्त्वा मूर्द्धनि पादमुद्यमभिदो देवस्य कीर्तिप्रियः, वीर्यादिह न साहसतुलामारोप्यते जीवितम् ॥ ८३ ॥
तथा
"विहाय पौरुषं कर्म, यो देवमनुवर्त्तते ।
तद्धि शाम्यति तं प्राप्य, क्लीवपतिमिवाङ्गना ॥८४॥
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- जब तक कीर्तिप्रिय वीरोने उद्यम न करनेवाले दैव( भाग्य ) के मस्तक पर पैर रख कर अपने जीवनको साहस( हिंमत ) की तुला पर चढाया नहीं तभी तक यह समुद्रवेष्टित पृथ्वी उनके लिये दुर्गम है, तब तक ही आकाश निरालम्ब हैं और तभी तक पाताल - यात्रा विषम है । वह आकाश, पाताल व समुद्र सब जगह जा सकता है |
और जो पुरुषार्थ छोड़कर दैवका अनुसरण करता है वह जैसे स्त्री नपुसक पति पाकर निष्फल होती है उसी तरह उसका दैव निष्फल जाता है ॥
कार्य मनोरथसे नहीं, पुरुषार्थसे सिद्ध होते हैं । उनके बिना दैव कुछ नहीं कर सकता ।
तथा - वीर्यद्धिवर्णनमिति ॥ ३० ॥ ( ८८ ) मूलार्थ - और वीर्य की ऋद्धिका वर्णन करे ! ||३०||