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१९२ : धर्मविन्दु
" अर्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च । नैव मूढो विजानातिः, मुसूर्युरिव भेपजम्" ॥७५॥ "संप्राप्तः पण्डितः कृच्छं, प्रक्षया प्रतिबुध्यते । मूढस्तु कृच्छ्रमासाद्य, शिलेवाम्भसि मजति" ॥७६॥
-जैसे मरणासन्न व्यक्ति औषध लेना नहीं चाहता, वैसे ही मूढ पुरुष उसके कहे हुए सार्थक व गुणवाले वाक्योको ग्रहण नहीं करता । अथवा जैस मरणासन्न पुरुषको औषधिका असर नहीं होता वैसे मूढको सदुपदेशका कोई असर नहीं होता। पडित जन कष्ट पाकर भी बुद्धिसे प्रतिबोध पा जाते है अर्थात् शिक्षा देने पर उसे ग्रहण कर देता है पर मूर्ख कष्ट आ जाने पर जलप्रवाहमे शिलाकी तरह डूब जाता है, अत. नीच कर्म करनेको प्रेरित होता है। पडित जन सुख-दुःखके क्रमको समझकर मनको, समाधानपूर्वक रख लेते हैं। मूढ कष्टस घबरा जाते है।
मोहका अलाभ या हानि बताकर उसको त्याग करनेका उपदेश देना चाहिये | मोहका दूसरा अर्थ ससारके पदार्थों प्रति राग है। आत्मा व द्रव्यकी भिन्नता मोहसे छिप जाती है। आत्मा द्रव्यको अपना मानता है और अंतत. दुःख पाता है और संसार भ्रमण करना पडता है, अतः मोहका त्याग करना आवश्यक है। ___ या दूसरा उपाय-मोहका कष्टदायक फल बताकर मोहकी निंदा करे। जैसे
" जन्ममृत्युजरान्याधिरोगशोकाद्युपद्रुतम्। वीक्षमाणा अपि भवं, नोद्विजन्त्यपि मोहतः" ॥७॥