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गृहस्य देशना विधि : १०५ "द्विपद्विपतमोरोगkःसमेकत्र टीयते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन जन्तोर्जन्मनि जन्मनि" ॥६५॥ "घरं ज्वालाऽऽकुले शितो, देहिनाऽऽत्मा विनश्यते । न तु मिथ्यात्वसंयुक्त, जीवितव्य कदाचन" ॥६६॥
-शत्रु, विष, अंधकार व रोग मनुप्यको एक समय या एक ही जन्ममें दुख देते हैं पर दुरंत मिथ्यात्व तो जन्म जन्मान्तरमें भी दुःख देना है।
-धधकते हुए ज्वालाकुंडमें गिर कर मनुष्यको अपने देहको जलाना उत्तम है, पर मिथ्यात्वसहित जीवन कदापि न रखे ।
__ इस प्रकार तत्वमें अश्रद्धा! मिथ्यात्व )की निंदा करे और हिंसादि तथा चार कपाय इन नौ पाप कारणोकी भी. जो अनिष्ट परिणामवाले हैं, निंदा करे।
तथा-तत्स्वरूपकथनमिति ॥२०|| ७८) मूलार्थ-और अंसदाचारका स्वरूप बताना चाहिये ।
विवेचन-हिंसा आदि पाप कारगोंका, अंसद् आचरणका स्वरूप वताना आवश्यक है। उदाहरणार्थ-१ प्रमाढयोगसे प्राणीका नाश, उसका देश प्राणोसे वियोग- हिंसा है । २ असत्ये कहना, सत्य न कहना मृपा या अनृतं है। ई अदत्त-बिना दिया हुआ लेना स्तेय या चोरी है। ४ मैथुन या स्त्रीमोग तथा कामभोगको अब्रह्म कहते हैं। ५ कोई मी वस्तु मेरी है ऐसी उस पर मूर्छा या मोह रखनेको परिग्रह कहते हैं।
'तत्त्वार्थ सूत्र में इस प्रकार कहा है