________________
१०६ : धर्मवन्दु
"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ ७-८ ॥ " असदमिधानमनृतम् ॥ ७-९॥ " अदत्तादान स्तेयम् ॥ ७-१०॥ " मैथुनमब्रह्म" ॥ ७-११॥ "सूच्छा परिग्रहः ॥ ७-१२ ॥ इस प्रकार स्वरूप बतावें।
तथा स्वयं परिहार इति ॥२१॥ (७९) - मूलार्थ-स्वयं (उपदेशक) असदाचारका त्याग करे ।
विवेचन-स्वय उपदेशक असदाचार न करे। इनका त्याग करे । यदि स्वयं असदाचार आचरण करता हुआ धर्मोपदेश करे तो उसका धर्मोपदेश वेशधारी नटके वैराग्यकी तरह अग्राह्य होता है। वह साध्यकी सिद्धि करानेवाला, धर्मकी प्राप्ति करानेवाला नहीं होता। आचरण व उदाहरणकी असर उपदेशसे ज्यादा होती है ।
तथा ऋजुभावासेवनमिति ॥२२।। (८०) मूलार्थ-और वह सरलभाव रखे ॥
विवेचन-ऋजुभाव-कुटिलताका त्याग, सरलताकी भावना या सरल स्वभाव, आसेवनम्-आचरण ।
उपदेशक कुटिलताका (वृथामिमान आदि ) का त्याग करके सरलभाव रखे । इससे शिष्य पर यह भाव प्रगट होगा कि वह प्रतारणा ( ठगाई ) करनेवाला नहीं है। ऐसा होनेसे शिष्य उससे दूर नहीं होता और उसके उपदेशके समीप आता है। कुटिलतासे