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५२ : धर्मविन्दु -
मूलार्थ-अनर्थ या विनाशसे पोज्य वर्गकी रक्षाका प्रयत्न करना चाहिए ॥३७॥ . विवेचन-अपायेभ्यः-अनर्थसे, परिरक्षा-सब जगहसे त्राण या बचाना। . - इस लोक या परलोक संबंधी कोई भी आपत्ति पोण्य वर्ग पर आती हो तो उसका नाश करके उनको सुख देनेका महान प्रयत्न करना चाहिए। यदि स्वामी ऐसे समय पर उनकी रक्षा कर सके तो ही उसके प्रति सेवक व पोज्यवर्गका योग्य भाव जागृत होगा। पोष्यवर्गके प्रति उसका स्वामित्व तभी है जब वह अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करावे (योग) और प्राप्त वस्तुकी रक्षा (क्षेम) करनेमे समर्थ हो। 'योग-क्षेमकरस्यैव नाथत्वादिति'-योग और क्षेमके करनेसे ही स्वामित्व है। ... तथा गर्ये ज्ञानस्वगौरवरक्षे इति ॥३८॥ __- मूलार्थ-उनके निन्दनीय व्यवहारको जान कर अपने गौरवकी रक्षा करे ॥३८॥ . , . : . . . . . . . .
... विवेचन-ग-निन्दनीय, कभी कोई लोकविरुद्ध अनाचार या निन्दायुक्त कार्य करे, ज्ञानम्-जान कर निश्चित करना-संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसायको छोड कर जैसा हो वैसे स्वरूपका निश्चय निर्धारित करना, संशय-यह ऐसा है, ऐसा नहीं हैं-इस प्रकार परस्पर विरुद्ध ज्ञान होना, जैसे- 'मै-आत्मा हूं या शरीर हूं । विपर्यय-'मै शरीर हू, अग्नि ठडा है'-आदि विरुद्ध ज्ञान होना, अनध्यवसाय--
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