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९२ : धर्मविन्दु
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६ व्यंजन ज्ञानाचार - श्रुत ग्रहण करनेवाला व फलकी इच्छावाला व्यंजन भेद, अर्थ भेद तथा उभय भेद नहीं करे। जैसे 'धम्मो मंगलमुक्किटं” के बजाय "पुन्नो कल्लाणमुक्कोसं " शब्द लिख देना । यद्यपि अर्थ भेद न आवे तब भी व्यंजन या अक्षर भेद नहीं करना चाहिये | इससे शब्दका सामर्थ्य नष्ट होता है ।
७ अर्थ ज्ञानाचार—प्रसिद्ध अर्थको छोड कर दूसरा अर्थ करना अर्थभेद है। जैसे " आवंतीके यावंती लोगंसि विप्परामसंति " ऐसा पाठ आचारांगसूत्रमें आया है। इसका प्रसिद्ध अर्थ है कि ' इस पाखंडी लोक में जितने असयत जीव हैं उसमेसे कई छ कायके जीवोकी विराधना करते हैं'। इस अर्थके बदले " यावन्तः केचन लोके अस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्ति' कहना, जिसका अर्थ है 'अवती देशमें रस्सीवाले लोग कुंएको संताप देते हैं, यह विपरीत अर्थ है । इस प्रकार विपरीत या भिन्न अर्थ करना अर्थभेद है । जिसमें यह अर्थ भेद न हो वह अर्थ ज्ञानाचार है ।
८ तदुभयज्ञानाचार - व्यंजन (अक्षर) तथा अर्थ दोनों में भेद लानेवालेको उमयभेद कहते हैं । उदाहरणार्थ - "धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमहिंसा पर्वतमस्तके" यहां व्यंजनभेद करने से अर्थभेद भी हो - जाता है। इसे उत्सूत्र दोष कहते हैं । यह दोनो भेद जहां न हो -उसे तदुभय ज्ञांनाचार कहते हैं ।
व्यंजनका भेद होनेसे अर्थभेद होता है । उससे क्रियामे भी