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गृहस्थ देशना विधि : ७९ विवेचन-अभूमौ ऊपर आदि भूमि, प्ररोहा अंकुर आदि 'प्रस्फुटित होना, निष्फल-फलरहित।
ऊपर या बंजर भूमिमें वोये हुए अन्नका वीज ही नष्ट हो जाता है। यदि कभी अंकुर भी फूट गया तो धान्य आदिकी जो “उत्पत्ति होना चाहिये वह फल उसका नहीं होता और वह निष्फल ही रहता है। उसी तरह अज्ञानी अपात्र गृहस्थके हृदयमें बोया हुआ सद्धर्मका बीज भी नष्ट होता है। यदि व्यवहारमें कभी सद्गुण आदि.अंकुर निकला भी तो मोक्षरूपी फल-तो कदापि नहीं मिलता। ___ अपात्रमे कैसे सद्धर्मका बीज नष्ट होता है या अंकुर होने पर भी निष्फल होता है। कहते हैंन साधयति यः सम्यगज्ञः-स्वल्पंचिकीर्षितम् ।। अयोग्यत्वात् कथं मूढः, स महत्.साधयिष्यति ॥९॥
मूलार्थ-जो अज्ञानी अपनी तुच्छ इच्छाको भी नहीं साध सकता, वह मूढ अयोग्य होनेसे मोक्ष प्राप्तिरूप महत कार्यका संपादन कैसे कर सकता है ? ॥९॥'
विवेचन-अज्ञः हिताहितका विभाग करनेमे अकुशल, 'चिकिर्षितम्-निर्वाह आदि अनुष्ठान, अयोग्यत्वात्-अज्ञतासे अयोग्य होनेसे अधिकारी नहीं, महत्-परम पुरुषार्थके हेतुरूप होनेसे महान् धर्मवीजको अंगीकार करनेका कार्य या मोक्ष।
जो मूढ जीव हित, अहिनमे मेद नहीं कर सकता वह अपनी तुच्छ आजीविका आदिका अनुष्ठान करनेमें भी असमर्थ हैं। जो