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८२ : धर्मपिन्दु
तथा-साधारणगुणप्रशंसेति ॥३॥ (६१) मृलार्थ-उपदेशक सामान्य गुणोंकी प्रशंसा करे ॥३॥
विवेचन-साधारण लोक तथा लोकोचरके सामान्य गुण, प्रशंसा-उपदेश सुननेवालेके सामने लोक व लोकोत्तरके साधारण, सामान्य गुणोकी प्रशंसा करे जिससे वह उपदेश सुननेकी लालसा प्रगट करे।। जैसे। "प्रदान प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिः,
प्रियं कृत्वा मौनं 'सदसि कथनं चाप्युपकृतेः। अनुत्सेको लक्ष्म्या निरभिमतसारा परकथा,
___ श्रुतौ चासंतोषः कथनमभिजाते निवसति" ॥४९॥ '-सुपात्रमें गुप्त दान, (लोक प्रशंसाके लिये नहीं), कोई घर आवे तो उसे अहोभाग्य समझकर (प्रीति सहित उसकी भक्ति तथा स्वागत करना ), किसीका प्रिय या हित करके मौन रखना (भला करके कह बताना नहीं ), किसीका (अपने पर) किया हुआ उपकार सभाके बीच कहना, लक्ष्मीका मद नहीं करना, दूसरोंकी भली बात करना, पर पराभव हो वैसी बुरी . बात , कभी न कहना, सब जगह संतोष रखना पर शास्त्रश्रवण व अध्ययनमें - संतोष नहीं रखना अर्थात् श्रवण व अध्ययन बहुत करना, ऐसे सुंदर गुण कुलीन पुरुषोंकी अपेक्षा और किसमें पाये जाते हैं. ॥४९॥ .. -
अन्यत्र भी कहा है कि-'लोभका नाश, क्षमा, अभिमात दूर करना, पापमें आनंद नहीं लेना, सत्य बोलना, साधुपुरुषों का अनुसरण करना, विद्वानोकी सेवा, मान्य पुरुषोंका मान, दुश्मनोंको मता