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गृहस्थ देशना विधि : ८७ हो जायगा। वह क्रियाके स्वरूप या उदाहरणसे जान लेना चाहिये। (क्रियाका स्वरूप ‘पन्नवणा' आदि सूत्रोंमें कहा है )
"तस्मात् सदैव धर्मार्थी, शस्त्रयत्तः प्रशस्यते । लोके मोहन्धिकारेऽस्मिन् , शास्त्रालोकः प्रवर्तकः" ॥१३॥
उपरोक्त कारणोसे शास्त्रका अभ्यास करनेवाला धर्मी पुरुष सदा प्रशसा योग्य है । इस लोकके मोह अन्धकारको · दूर करनेके लिये शास्त्र ही दीपक (ज्योति ) है और वही उसको हेय, उपादेय वस्तुको बतानेवाला सही मार्ग पर ले जानेवाला है।
"पापमयौपधं शालं, शास्त्रं पुण्यनिवन्धनम् । चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्र, शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् " ॥५४॥
-शाल पापरूप रोगका औषध, पुण्यका कारण तथा सर्वत्र गमन करने ( जाने ) वाला चक्षु है। सक्षेपमे शास्त्र सर्व अर्थको साधनेवाला है।
. न यस्य भक्तिरेतस्मिन् , तस्य धर्मक्रियापि हि । ___ अन्धप्रेक्षाक्रियातुल्या, कर्मदोपादसल्फला" ॥५५॥
-ऐसे शास्त्रमे जिसको मक्ति नहीं है, उसकी सारी धर्मक्रिया भी अन्धे पुरुषके देखनेका प्रयास करने जैसी है और कर्मका दोष होनेसे शुभ फलकी देनेवाली नहीं है अथवा उसको सद्गति रूप फल नहीं हो सकता। __ “यः श्राद्धो मन्यते मान्यान् , अहङ्कारविवर्जितः।
गुणरागी महाभागः, तस्य धमक्रियः परा" ॥५६॥ : ---जो महाभाग्यशाली पुरुष अहंकार सहित और गुणानुरागी