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८४ : धर्मयिन्दु
मूलार्थ-गुणका बोध न भी हो तब भी निंदा नहीं करना चाहिये ॥५॥
विवेचन-अबोधेऽपि-सामान्य या विशेष किसी भी गुणका बोध न हो तो भी, अनिन्देति-श्रोताकी निन्दा नहीं करना । __यदि श्रोताको सामान्य गुण या विशेष गुण इन सबमें से एक भी गुणका बोध प्राप्त न हो, उसके मन पर असर न हो या न समझे तो भी उसकी निन्दा नहीं करना चाहिये। जैसे कि-'तुम मंदबुद्धि या अभागे हो, हमने तुमको इतनी तरहसे बोध किया; समझाया तो भी तुमको वस्तु तत्वका बोध न हुआ' इस प्रकारकी श्रोताकी निंदा या तिरस्कारका त्याग करे1 उपदेशक गुस्से न हो। ऐसा करनेसे श्रोताकी- जिज्ञासा नष्ट होती है, मनमें सुननेके प्रति भावकी कमी हो जाती है।
तब उपदेशक क्या करे? कहते है-१,
'शुश्रुषाभावकरणमिति ॥६॥ (६४) 'मूलार्थ-सुननेकी इच्छाका भाव श्रोतामें उत्पन्न करे ॥६॥ - विवेचन-उपदेशक श्रोताको इस प्रकार उपदेश दे कि श्रोताके मनमें शास्त्रश्रवणकी भावना पैदा हो। अर्थात् योग्य वचनोसे श्रोताको धर्मशास्त्र सुननेकी इच्छा बिना धर्मोपदेश करनेसे ऊलटे अनर्थ होनेकी संभावना रहती है। कहा है कि-" स खलु 'पिशाचकी वातकी वा यः परेऽनर्थिनि वाचमुदीरयते " -सुननेकी इच्छाके रहित श्रोताके सम्मुख उपदेशक जो वाणी उच्चारे वह पिशाचग्रस्त अथवा वातूनीकी