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गृहस्य देशना विधि : ७७ विधिना-देशना योग्य वाल आदि पुरुषोंकी योग्यताके लक्षणसे, उसानि-डाले हुए, यथा-जैसे, वीजानि-शालि, गोधूम-मोहूं आदि अन्नकी भांति, सक्षितो-अच्छी व वरावर भूमि ।
प्रायः करके सद्धर्मके बीज अच्छे गृहस्थके हृदयमें जम कर धर्मचिन्ता आदिके लक्षणके रूपमें अंकुरकी तरह ऊग आते हैं। यदि वे देशना आदिसे विधिवत् बोये जाय, जैसे शालि आदि अन्न अच्छी व वरीवर भूमिमें विधिसे वोये जाने पर अग आते हैं। सद्धर्मके बीज ये है
"दुःखितेषु दयाऽत्यन्तमद्धेपो गुणवत्सु च । औचित्यासेवनं चैव, सर्वत्रैवाविशेषतः" ॥४६॥
-दुःखी पर दया, गुणी पर अद्वेष (गुणी पर राग) तथा सव स्थानों पर भिन्नता रहित योग्य मार्गका सेवन करना, ये धर्मके बीज हैं।
ये वीज भी विधिवत् गृहस्थके हृदयमें बोने पर प्रायः ऊग आते हैं। धर्मके अंकुर पैदा होते है उसके बारेमे कहा है कि
"वपनं धर्मवीजस्य, सत्प्रशंसादि तद्गतम् । सञ्चिन्ताद्यड्कुरादि स्यात् . फलसिद्धिस्तु निर्वृतिः" ॥४॥ "चिन्ता सच्छ्रुत्यनुष्ठानदेवमानुपसंपदः । क्रमेणाङ्कुरसत्काण्डनालपुष्पसमा मता' ॥४॥ -~-सत्पुरुकी प्रशंसा करना यह धर्मग्रीजका आरोपण है। धर्मचिन्तन आदि उससे अंकुर समान है और निवृति या मोक्ष उसकी फलसिद्धि समान है ॥४७॥