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द्वितीय अध्याय। प्रथम प्रकरणमे बताये हुए गृहस्थके लक्षण जिस व्यक्तिमें आ जाते है वह धर्मका उपदेश ग्रहण करनेका योग्य अधिकारी हो जाता है। अब दूसरे अध्यायकी व्याख्या करते हैं। इस अध्यायका विशेष विषय शास्त्रकार स्वयं कहते है इससे यहां नहीं बताया । अन्य अध्यायोंमें भी ऐसा ही है । द्वितीय अध्यायका यह पहला सूत्र हैप्रायः सद्धर्मवीजानि, गृहिष्वेवंविधेष्वलम् । रोहन्ति विधिनोप्तानि, यथा बीजानि सतक्षितौ ॥७॥
मूलार्थ- जैसे अच्छी पृथवीमें विधिवत् बोये हुए बीज उगते हैं वैसे ही उपयुक्त लक्षणवाले गृहस्थोंमें विधि सहित बोये हुए सद्धर्मके बीज प्रायः ऊग आते हैं ।।७।।
विवेचन-सद्धर्मस्य-सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्ररूप, वीजानि -कारणानि-मूल, गृहिपु-गृहस्थमें, एवंविधेपु-कुल क्रमागत अनिन्द्य न्याय अनुष्ठान आदि गुणोंके पात्रमें, अलं-अपने सफल कारणोसे, रोहन्ति-धर्मचिन्तन आदि लक्षणवाले अकुरोंसे युक्त,