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७४. : धर्मविन्दु
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विवेचन-एवं-न्याय सहित जैसा कहा है, स्वधर्म:- गृहस्थका साधारण धर्म, सद्गार्हस्थ्यं - सुदर गृहस्थाश्रम, अनिंदित-शुभानुबंधी होनेसे सद्बुद्धिवाले पुरुषों द्वारा निन्दा न की जाने ऐसा, धीमान - प्रशस्त, बुद्धियुक्त, आप्नोति - प्राप्त होता है ।
इस प्रकार जो उपर्युक्त सामान्य गृहस्थ धर्मयुक्त सुंदर गृहस्था -- श्रमका पालन करते है वे बुद्धिमान पुरुष दोनों लोकोंमें भी अनिन्दित सुखको प्राप्त करते है । वह सुख- पुण्यानुबंधी पुण्यसे मिलता है। गृहस्थ के सामान्य धर्म में गृहस्थ के श३ गुण कहे हैं । प्रत्येक गुणकी मूलके साथ ( पहलीवाली ) संख्या दी है । इन सब गुणोको पानेवाला ही सामान्य गृहस्थ धर्मको पालता है । इसका पूरा प्रयास करना चाहिये । यही आगे के दो लोकोमें बताते हैंदुर्लभं प्राप्य मानुष्यं विधेयं हितमात्मनः । करोत्यकाण्ड एवेंह, मृत्युः सर्वं न किञ्चन ||५|| सत्येतस्मिन्नसारासु, संपत्स्यविहिताग्रहः । पर्यन्तदारुणा सूच्चैर्धर्मः' कार्यो महात्मभिः ||६|
मूलार्थ - दुर्लभ मनुष्य जन्मको पा कर आत्मका हित साधन चाहिये क्यों कि मृत्यु अकस्मात ही आकर इस संसार में ' कुछ न था' ऐसा कर देगी। इस स्थितिको विचार कर परिणामतः- कष्ट देनेवाली असार सपत्ति में मोह रखे बिना आत्मार्थी पुरुषों को उच्च प्रकार से धर्मका आचरण व सेवन करना चाहिये ।