________________
६२ : धर्मविन्दु । करना चाहिये । वह अपनी आत्माको उत्तम लोगोंकी संभावनाके अयोग्य मानता है, अतः वह उनका अनुसरण करके अपने आपको कृतार्थ करके हर्षित होगा। साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिये कि यह वात गृहस्थके सामान्य धर्मके लिए कही गई है।
तथा-अतिसङ्गवर्जनमिति २५ ॥४८॥
मूलार्थ-अधिक परिचयका त्याग करना चाहिये ॥४८॥ - विवेचन-सभीके साथ अतिपरिचयका त्याग करना ही उचित है। इससे गुणगानका भी अनादर होने लगता है। अतिपरिचय तिरस्कार उत्पन्न करता है और उससे गुणीके प्रति भक्ति भी कम हो जाती है। कहा है कि
"अतिपरिचयादवज्ञा भवति, विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः। लोकः प्रयागवासी,, कूपे स्नानं सदा कुरुते" ॥३८॥
- प्रायः विशिष्ट वस्तुसे भी अतिपरिचय रखनेसे अवज्ञा या अवगणना होने लगती है, जैसे कि, प्रयागमें रहनेवाले गंगामें न नहाकर सदा कुंएसे ही स्नान करते हैं।
,अतः सबसे योग्य सहवास करना चाहिए। तथा-वृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवेति २५ ॥ ४९ ॥ .. ।
मलार्थ-सदाचारी व ज्ञानवृद्ध पुरुपोंकी सेवा करना चाहिए ॥ ॥४९॥ । । । . विवेचन-वृत्तं-दुराचारसे दूर रहना व सदाचारमें प्रवृत्ति करना-वृत्तमें रहनेवाले वृत्तस्थाः , ज्ञान- हेय व उपादेय (त्याज्यं