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६६ : धमविन्दु
भी धर्म व कामकी साधना नहीं होती । अतः मतिमान लोग इन तीनोंकी प्रकृतिका त्याग करके अर्थका सेवन करते है अर्थात् उचित -व्यय तथा रक्षण करते है।
जिस व्यक्तिकी इद्रिये वर्शमें नहीं है उसका कोई भी कार्य 'सिद्ध नहीं होता । जो अतिकामासक्त है उसका कोई उपाय नहीं । और जो स्त्रियों में अतिमासक है उसका द्रव्य, धर्म या शरीर - कुछ भी उसके हाथमें नहीं रहता । यह इन तीनों को खो देता है। जो -विरुद्ध काममें प्रवृत्त है वह लंबे समय तक सुखी नहीं होगा। कामनिग्रह करना आसान नहीं है तब भी धीरे धीरे काम निग्रह करना चाहिये । कामवृत्तिको जो जीत लेता है वही देव समान है । मतः धर्म व अर्थको हानि हो उस तरह काम नहीं करना चाहिये ।
इस प्रकार परस्पर विरोध उत्पन्न न हो ऐसे तरीकेसे धर्म, अर्थ व काम - तीनों की साधना करनी चाहिये। यदि उनमें परस्पर बाधा आती हो तो किसका त्याग करे सो कहते हैं-
तथा - अन्यतरबाधासंभवे मूलाबाधेति ॥ ५१ ॥ मूलार्थ - किसीको हानि हो तो मूल पुरुषार्थको बाधा नहीं होने देना चाहिये ।।५१ ॥
विवेचन - अन्यतर-उत्तरोत्तर पुरुषार्थको, मूलाबाधा - मूल पूर्ववर्ती की हानि न होने देना ।
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धर्म, अर्थ व काम एक त्रिवर्ग है उसमें किसी भी उत्तरोत्तर पुरुषार्थको बाधा न होने पर पूर्व पुरुषार्थको बाधा न होने दे। इसमेंसे