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६८ : धर्मविन्दु
बुद्धिमान् पुरुषको किसी भी काममे प्रवृत्ति करते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावसे अपना सामर्थ्य कितना है, व अशक्ति कितनी है उसका विचार करना चाहिये। यदि विना सोचे काम करे तो संपत्ति आदिका क्षय होनेका निमित्त होता है। जैसे अपने सामर्थ्यसे ज्यादा व्यापार करनेवाला हानि होने पर बिलकुल मारा जाता है। कहा है कि
"क. कालः कानि मित्राणि, को देशः को व्यायागमौ? । : कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः" ॥४१॥
--समय कैसा है, मित्र कौन है, कौनसा देश है, खर्च व आय कितनी है, मैं कौन हू, मेरी शक्ति कितनी है ? इत्यादि सारी बातोका निरंतर विचार करना चाहिये। __इन सबका विचार करनेसे कई दुःख कम पड़ जाते हैं अतः हमेशा साधन व शक्ति आदिका विचार करके किसी भी कार्यमें पडना चाहिये।
तथा-अनुवन्धे प्रयत्न इति ॥५३॥ मूलार्थ-धर्म, अर्थ व कामकी उत्तरोत्तर वृद्धिका प्रयत्न करना चाहिये ॥५३॥
विवेचन-अनुबन्ध-(धर्म, अर्थ व कामकी ) उत्तरोत्तर वृद्धि करना, प्रयत्न-अधिक यत्न करना। .
धर्म, अर्थ व कामकी निरंतर व उत्तरोत्तर वृद्धि हो ऐसा प्रयत्न करते रहना चाहिये । उसका आग्रह रखना चाहिये। विन आने