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६४ : धर्मविन्दु ;हो । अर्थ या धनसे ही काम व धर्मकी साधना होती है। अभिमान या अहकारके रससे व्याप्त ऐसी सब इंद्रियोकी प्रीति जिससे हो, जिससे सब इंद्रियोका विषय भोग हो सके वह काम है। परस्परानुपघातेन- इनकी पारस्परिक एक दूसरेकी हानि न हो इस भांति तीनोंका सेवन करे। अन्योज्यानुवद्धस्य-यह तीनो परस्पर एक दूसरेसे बंधे हुए हैं, अतः किसी एकका हर्ज करके दूसरेका सेवन नहीं करना । प्रतिपत्ति- सेवन । . . .
धर्म, अर्थ व कामका यह त्रिवर्ग है और तीनोका एक दूसरेसे अन्योन्याश्रित संबंध है । इन तीनों पदार्थों का, जो परस्पर गुंथे हुए हैं बिना किसीकी भी हानि किये सेवन करे। धर्म और अर्थकी हानि करके सिर्फ काम-विषय सुखमे आसक्त व्यक्ति जंगली हाथीकी तरह आपत्तिमें गिरता है। धर्मको छोड़ कर धन (अर्थ) उपार्जन करनेसे सब स्वजन आदि अन्य जन उसका लाम लेते है व स्वयं सारे (या बहुत अंशमें ) पापका भागी होता है। जैसे सिंह हाथीको मारनेसे पापका भागी होता है (क्यों कि वह स्वयं बहुत कम भाग काममें लेता है तथा बाकी सारा भाग - शियाल आदि अन्य, जानवर खा जाते हैं । ) धर्मको छोडकर धन, उपार्जन करनेवाला उस कुटुंबी (किसान ) की तरह दुख पाता है। जो बीज (बोनेके लिए आया या लाया हुआ अन्न ) भी खा जाता है, इसी तरह मनुष्य, जन्मरूपी-बीजको-पापसे खोनेवाला--दुख पाता है। अधार्मिकका कोई कल्याण नहीं होता। अत. धर्मका उल्लंघन किये विना न्यायोपार्जित धनसे ही संतोष,मानना चाहिए। वही-वास्तवमें