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गृहस्थ सामान्य धर्म । ५७ विवेचन-लौल्य-लोलुपता-आकांक्षाकी अधिकतासे ज्यादा भोजन करना। ... सात्म्यतासे जो काल भोजन किया जाता है उसमें लोलुपताका त्याग करना चाहिये ! जो मूखमे कुछ कम खाता है, मितमोजी हैं वही बहुत खाता है-पूर्ण भोजन करता है ऐसा समझो। दुनियाके कई रोग अधिक भोजनसे होते हैं। अधिक भोजनसे वमन, दत्त व मृयु-इन तीनमें से एक किये बिना वह अतिरिक्त भोजन आराम नहीं लेता। भोजन ऐसा करे जिससे शामको यो दूसरे दिन सवेरे तक जठराग्नि मन्द न पडे । भोजनके परिणामका कोई सिद्धांत नहीं है। जितना आरामसे पचे उतना ही खाना चाहिए । जठराग्निके, अपने रुचिके जितना भोजन करे। अतिभोजन करनेसे जठराग्नि विगहती है और जठराग्नि प्रदीप्त होने पर कम भोजन करनेवालेका शरीर क्षीण होता है और अतिभोजनसे परिणाममें दुख होता है। श्रमसे थके हुए मनुष्यको शीघ्न भोजन या पान करनेसे अवश्य ज्वर या वमन होता है। अर्थात् कुछ समय आराम लेकर फिर भोजन पान करे। ' - तथा-अजीर्णे अभोजनंमिति २१ ॥४३॥ ., ___ मूलार्थ-यदि अजीर्ण हुआ तो भोजन नहीं करना चाहिये ॥४३॥ - - ; .,.,, ,
विवेचन-पहलेका किया हुआ भोजन यदि न पंचे तो अथवा 'पूर्ण पाचन न हो तो दूसरे समय या जब तक वह पूर्ण न पचे