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५६ : धर्मविन्दु
विवेचन-मनुष्यके सामान्य धर्ममें देवादिकी पूजा भक्ति १८वां तथा समय पर भोजन १९वा गुण है।
" पानाहारादयो यस्याविरुद्धाः प्रकृतेरपि।। सुखित्वायावलोक्यन्ते, तत् सात्म्यमिति गीयते" ॥३२॥
-मनुप्यकी प्रकृति के अनुकूल जो खान-पान है तथा जो उसको सुखप्रद देखनमें आवे बह सात्म्य कहलाता है। ऐसे लक्षणवाले साम्य भोजनको समय पर करे अर्थात् जब भूख लग आवेऐसे समय पर भोजन करे। अभिप्राय यह है कि जन्मसे ही सात्म्यसे खाया हुआ विष भी पथ्य हो जाता है और असाम्यसे खाया हुआ पथ्य भी प्रकृति से प्रतिकूल हो जाता है। - सर्व वलंयतः पथ्यम्' 'बलवानके लिये सब पथ्य है। ऐसा मान कर कालकूट विष नहीं खाना चाहिए। विपतंत्रको अच्छी तरह जाननेवाला सुशिक्षित व्यक्ति भो कदाचित् विपसे मर सकता है तथा विना क्षुधाके खाया हुआ अमृत भी विष जैसा हो जाता है। भूखके समयके बाद अन्न पर अरुचि पैदा हो जाती है तथा वरावर खाया नहीं जाता या पचता नहीं। जैसे-" विध्यातेऽग्नौ कि नामेन्धनं कुर्यादिति ?' अग्नि शांत होनेके बाद इन्धन क्या कर सकता है ? अंत भूख लेंगने पर भोजन करे। -- -
. तथा-लौल्यत्याग इति २० ॥४२॥ मूलार्थ-रुचि उपरांत भोजनमें लोलुपता नहीं करना चाहिए ॥४२॥