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५८ : धर्मविन्दु तव तक सर्वथा भोजनका त्याग करे। अजीर्णमें भोजन करने पर या अजीर्ण ही सब रोगोंका मूल है, और रोगोकी वृद्धि करता है। कारण, जैसे अग्नि पर एक लकडी पर यदि दूसरी बड़ी लकडी रख, दी जावे तो अग्नि कम होता है। वैसे ही ऊपर ऊपर अधिक करते जानेसे जठराग्नि मंद पड़ जाता है-अपच होता है। ऐसे भोजनसे रस, वीर्य आदि धातु नहीं बनते तथा अनर्थ परंपरा व रोग बढते. जाते है। कहा है कि
'अजीर्णप्रभवा रोगास्तत्राजीणं चतुर्विधम् । आमं विदग्ध विष्टब्ध, रसशेपं तथा परम् ॥३३॥ आमे तु द्रवगन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता। विष्टन्धे गात्रभङ्गोऽत्र, रसशेषे तु जाड्यता" ॥३४॥
-सब रोग अजीर्णसे पैदा होते हैं। अजीर्ण चार प्रकारका है-आम, विदग्ध, विष्टव्ध और रसशेष । आम-अजीर्णमें नरम दस्त तथा छाश आदिकी दुर्गन्ध-द्रवगन्धी होती है। विदग्ध-अजीर्णमें खराव धुंए जैसी दुर्गन्ध आती है। विष्टब्धमें शरीर तूटता है, शरीरमें पीडा होती है तथा अवयव दीले पड़ जाते हैं। चौथे रसशेषमें जडता-शिथिलता व आलस आता है ॥ द्वगन्धी-द्रव्य या दस्तमें नरमी तथा कोहेली व छाश जैसी दुर्गन्ध आती है। अजीर्णके लक्षण ये हैं
'मलवातयोर्विगन्धो, विड्भेदो गात्रगौरवमरुच्यम् ।
अविशुद्धश्चोहारः, षडजीर्णव्यक्तलिहानि" ॥३५॥ . -मल व वायुकी हमेशासे भिन्न दुर्गन्ध, विष्टामें हमेशांसे