________________
५० : धर्मविन्दु । "वृद्धौ च मातापितरौ, सती भायां सुतान् शिशून् ।
अप्यकर्मशत कृत्वा, भर्तव्यान् मनुरब्रवीत् ॥२८॥
-सैंकडो अकर्म करके भी मातापिता, सती स्त्री तथा छोटे बच्चों (जो कमाने लायक नहीं हुए)का रक्षण करना ही चाहिए। ऐसा मनु कहते हैं।
यदि हम ठीक वैभवसंपन्न है तो अन्य लोगोंका भी पोषण करना चाहिए। कहा है कि"चत्वारि ते तात! गृहे वसन्तु, श्रियाऽमिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे। सखा दरिद्रो भगिनी व्यपत्या, ज्ञातिश्च वृद्धो विधनः कुलीनः ॥२९॥
-हे तात ! गृहस्थधर्ममें रहे हुए संपत्तियुक्त तुमको अपने घरमें इन चारको रख कर उनका भरणपोषण करना चाहिए । 'दरिद्री, मित्र, बिना पुत्र-पुत्रीकी बहिन, अपने कुल या जातिका कोई भी वृद्ध तथा निर्धन कुलीन'- इनकी लक्ष्मीयुक्त गृहस्थ रक्षा करे।
पर क्या उन्हे आलसी व निरुद्यमी बनाना चाहिए ! उत्तरमें कहते हैं
तथा-तस्य यथोचितं विनियोग इति ॥३५॥ । मूलार्थ-तथा उनको उनके योग्य कार्यमें लगाना चाहिए ॥३५॥
विवेचन-इस आश्रित वर्ग जिसका भरणपोषण करना है (जिसमें सेवक भी शामिल है) जो उनके लिए योग्य धर्म या कर्म हो उसमें उनको लगाना चाहिए। माता, पिता आदिके लिए योग्य धर्म तथा अन्योंके लिये उचित कार्य उनको सौंपे। जिस परिवार के पास कोई