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गृहस्थ सामान्य धर्म : ४९ मृलार्थ-किसीको भी उद्वेग न करनेवाली प्रवृत्ति करना चाहिए ॥३३॥ - - - - - - - - ।" विवेचन-अनुवैजनीया-उद्वेग या अशांतिका हेतु न होना । प्रवृत्तिः-मन, वचन, कायाकी चेष्टारूप कार्य।.. ____ अपने या पराये किसी भी मनुष्यको कष्ट या मनको अशांति व उद्वेग पैदा हो ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए। कोई मानसिक चेष्टा वचनसे या कायासे ऐसा कार्य न हो जो दूसरेको अशांत करे । दूसरेको अशांति उत्पन्न करानेवालेको कभी भी चित्तकी शाति नहीं मिल सकती। 'अनुरूपफलप्रदत्वात् सर्वप्रवृत्तीनामिति' सब प्रवृत्तियोंका फल उनके अनुरूप ही मिलता है। जिहा पर संयम रखे। क्रोधके समय मौन धारण करना चाहिए। अविचारित कार्य करनेसे अनर्थ होता है। -
तथा-भर्त्तव्यभरणमिति ॥३४॥ मूलार्थ-भरणपोषण करने योग्य (आश्रित). जनोंका भरणपोषण करे ॥३४॥ . . . : .. - _ विवेचन-भर्त्तव्यानां-भरणपोषण करने योग्य, माता पिता तथा आश्रित स्वजन, सगे संबंधी तथा सेवक आदिका, भरणं-भरणपोषण करना। -: इन सब भरणपोषण करने योग्य मातापिता तथा-जिनका वह कर सके भरणपोषण करना चाहिए.. इनमेसे इन-तीनका अवश्य भरणपोषण करे-मातापिता, सती स्त्री तथा छोटे बच्चे। कहा है कि