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४८ : सविन्दु
विवेचन-आशुष्मिका:-परलोकसंबंधी, योगा-देवपूजा आदि धर्मव्यापारका, कारणं-खुद करना तथा उनको कराना या प्रेरणा करना, तदनुज्ञया-माता पिताकी आज्ञा च अनुमतिसे, प्रवृत्ति:-सब इहलौकिक व पारलौकिक कामोका करना, प्रधानस्य-वर्ण, गन्ध आदिसे श्रेष्ठ, अभिनवस्य-नह वस्तुका, उपनयनं माता पिताको मेट करना, तद्भोगे-माता पिताके खाने पर, भोगः-स्वयं खाना या काममे लेना, अन्यत्र-भिन्न या दृसरी, तदनुचिताद-माता पिताके लिए प्रकृतिसे ही अनुचित या अयोग्य अथवा व्रतके कारण छोडी हुई। ___ माता पिताको धर्मकर्मका योग कगना चाहिए। जिन कमोसे परलोकका प्रयोजन सुघरे वे उनको करावे । उनको धर्मकार्यमें उत्साह दिलाना चाहिए । 'आप कोइ चिंता न करें तथा धर्मकार्य में प्रवृत्त रहे' इत्यादि कह कर उनको धर्ममें प्रेरणा दें। उनकी आज्ञा और अनुमतिसे सब वस्तुओंमें प्रवृत्ति करे। प्रत्येक शुभ वस्तु पुष्प, वस्त्र, फल, अन्नादि खाने पीने तथा अन्य भोगकी सब वस्तुएं जो अच्छी हो व नई हो तो पहले उनको देना चाहिए। सब ताजी वस्तुए पहले उनको भेट करना चाहिए। उनके भोग करनेके बाद स्वयं भोगे । इसमें एक ही अपवाद है। माता पिताकी प्रकृति के विरुद्ध कोई वस्तु हो, चाहे उन कमजोरी या शारीरिक स्थितिसे उनको अयोग्य हो यो तो व्रतके कारण छोडी हुई हो तो ऐसी जो भी उनके लिए योग्य न हो उस वस्तुका भोग पहले स्वयं कर सकते है । अन्य संव वस्तुएं पहले माता पिताको भेट करना आवश्यक है। .
तथा-अनुद्वेजनीया प्रवृत्तिरिति ॥३३॥