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गृहस्थ सामान्य धर्म : ५३ 'यह कुछ है, पर कया है यह न जानना' ऐसे निश्चित ज्ञान बिना जानना । इन तीनों रहित यथावस्थित स्वरूपको निश्चित रूपमें जानना-ज्ञान है।
जब कभी यह जान पडे कि पोप्यवर्गमें, किसी एकने या सबने कोई निन्दा योग्य कार्य किया है तो उसके बारेमें निश्चित वस्तु जानना आवश्यक है। सुनी सुनाई बात पर आधार न रखे। मंशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित निश्चिन वै सन्य ज्ञान प्रान करना। यदि निदोष हो तो उसे अपना स्थान देना चाहिये यदि दोपी हो तो अपने गौरवकी रक्षाके लिये उसे दिये हुए मानको नष्ट करना चाहिये अथवा तो उसे त्याग भी करना चाहिये।
तथा-देवातिथिदीनप्रतिपत्तिरिति ॥३९।।
मूलार्थ-देव, अतिथि व दीन जनोंकी सेवा करनी चाहिए ॥३९|| .
विवेचन-देव-इन्द्रादिक देवता जिनकी निरंतर स्तुति करते रहते हैं, जो क्लेश उत्पन्न करनेवाले कर्मके सैंकडों विपांकीमे मुक्त हैं और जिनमें अनन्त वीर्य व अनन्त सुख है और जो करुणाकी मूर्ति हैं उनको अरिहन्त, अज, अनन्त, शंभु, बुद्ध, तथा तमान्तक आदि नामसे पुकारते हैं। ये सब नाम परमात्मके गुणके सूचक हैं।
अतिथि-जो निरंतर धर्मक्रियांक अनुष्ठानमें लगे रहते है और उसमें तिथि आदि में भेद न करके सबै दिवसोको एकमा मानते हैं वे ही अतिथि है। कहा है कि