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गृहस्थ सामान्य धर्म : ३५ धर्म, अर्थ व कामका नाश होता, है और नवीनका उपार्जन नहीं हो सकता । इससे दोनो लोकोमें आत्माका अहित होता है अतः उपद्रव स्थानका त्याग करना चाहिए ।
तथा-स्वयोग्यस्याश्रयणमिति ॥१७॥ मूलार्थ-अपने योग्य पुरुष या स्थानका आश्रय लेना चाहिए।
विवेचन-जो व्यक्ति अपना रक्षण करनेको 'समर्थ हो तथा 'लाभदायक हो सके अर्थात् नई चीजोका लाभ करा सके व उपार्जित वस्तुका रक्षण कर सके ऐसे सेठ, श्रीमत या राजाका आश्रय लेना चाहिए । इसी तरह रक्षण सामर्थ्यवाले और लाभदायक स्थानमें ही निवास करना चाहिए । चतुर व्यक्ति विना आश्रयके भी चला लेते है पर सामान्य गृहस्थ तो लता समान है अतः योग्य आश्रय आवश्यक होता है। स्वामी या आश्रयदाता कैसा हो ? स्वामी धर्मात्मा, शुद्ध कुलवान, शुद्ध आचार व शुद्ध परिवारवाला, प्रतापवान व न्यायवान होना चाहिए। आश्रय ग्रहण करते समय इनका विचार करे। बादमें निष्ठासे उनकी सेवा करे ।
तथा प्रधानसाधुपरिग्रह इति ॥१८॥ मूलार्थ-उत्तम और सदाचारी व्यक्तिओंकी संगति करना चाहिए। । ।
विवेचन-उत्तम अर्थात् कुलीनता, सौजन्य, दाक्षिण्य व कृतज्ञता आदि गुणोंसे युक्त साधु व सदाचारमें आग्रह रखनेवाले ऐसे पुरुषकी