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गृहस्थ सामान्य धर्म : ४५ "उपदेशरत्नकोश"में कहा है कि, 'निदिजई दुजगो वि न कया वि'-दुर्जनकी भी निन्दा न करे यह वाच्य खास ध्यान देने लायक है। बुराईसे तो दुर्गुणी अधिक हठाग्रही बनेगा, क्रोधित व शत्रु होगा । निन्दासे ही सुधार नहीं होता । हमेशां गुणग्राहककी ही दृष्टि रखे । इससे सर्वत्र कुछ सीखनेको मिलेगा । निन्दासे आत्मा भी अवगुणोंकी ओर जाती है अत निन्दाका सर्वथा त्याग करना ही उत्तमताका लक्षण है। यह गृहत्यका चौदहवां गुण है।
तथा-असदाचारैरसंसग इति-॥२९॥ मूलार्थ-दूराचारीकी संगति नहीं करना चाहिए ।
विवेचन-असदाचारः-असद् + आचार ~ इस लोक और परलोकको रिगाडनेवाले ऐसे असुन्दर भाचार तथा वैसी प्रवृत्ति करनेवाले व्यसनग्रस्त असदाचारी, असंसर्ग:-संबन्ध विच्छेद करना।
__ व्यसन आदि असद् बावरण तथा उनको करनेवाले लागोंसे हमेशां दूर रहना चाहिए। जैसे जलती हुई अग्नि, उपद्रव या दुष्काल पीडित क्षेत्रसे दूर रहना चाहिए, इनसे कोई संपर्क न रखे। इतना ही नहि ऊलटे
संसर्गः सदाचारैरिति ॥३०॥ मूलार्थ-सदाचारी जनोंकी संगति करो।
विवेचन-दुराचारीका छोडना ही काफी नहीं है। सदाचारी व संत तया महात्माओंना सार्थ करना चाहिए, तमी सत्संगसे ही कुछ गुणवृद्धि होगी। सदाचारीको छोड़ने पर भी ससंग न