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४४ : धर्मविन्दु
आचार भ्रष्ट कुलीन नहीं कहा जा सकता परंतु सदाचारी ही कुठीन है । श्रीभर्तृहरि भी कहते है कि, "कान ज्ञान श्रवणसे शोभा पाता हैं कुंडलसे नहीं, हाथ दानसे न कि कंकणसे, तथा दयालु हृदयी पुरुषोंका शरीर चंदनसे नहीं पर परोपकारसे शोभित होता है" । अत निन्द्य आचारोंका त्याग करके सत्कार्यमें प्रवृत्ति करना चाहिए ।
तथा - सर्वेष्ववर्णवादत्यागो विशेषतो राजादिष्विति ॥ २८ ॥
मूलार्थ सब जनोंका अवर्णवाद विशेषतः राजा आदिके अवर्णवादका त्याग करना चाहिए ।
विवेचन - सर्वेषु -नीच, उत्तम व मध्यम आदि मेदसे विभिन्न सभी जनोका, अवर्णवादस्य - निन्दा करना, टीका या अपवादको प्रसिद्ध करना, राजादिषु - राजा, मंत्री आदि वहुतों को मान्य- ।
सभी मनुष्योकी अकारण निन्दाका त्याग करें। उनके दोषोंको प्रगट करना एक प्रकारका दुर्गुण है। गृहस्थ इसका त्याग करें। बुराई से द्वेषभाव पैदा होता है। कहा है कि
"न परपरिवादादन्यद् विद्वेषणे परं भपजमस्ति" ।
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- दूसरे की बुराई करने से अन्य, शत्रुता पैदा करनेकायोग्य औषध नहीं है याने दूसरेकी टीका करना शत्रुता करने का सबसे अच्छा साधन है । फिर खास कर राजा, मंत्री, पुरोहित आदि जो बहुतों को मान्य हैं उनकी बुराई करना तो और भी बुरा है क्योंकि उससे धन वैभव व प्राणका नाश होना संभव है ।