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२२ : धर्मविन्दु , जो मनुष्य राजदण्डके भयसे पापफर्म नहीं करता वह अधम है, जो परलोकके भयसे नहीं करता वह मध्यम है पर उत्तम पुरुप तो स्वभावसे ही पापका आचरण नहीं करते ॥७॥
यदि कोई निन्नकोटिका व्यक्ति नीचतासे अन्यायका व्यवहार करे तो भी अर्थप्राप्ति तो उसे हो और न भी हो, एकान्तसिद्धि नहीं होती । कभी अशुद्ध सामग्री व अन्यायका व्यवहार होने पर पापानुबन्धी पुण्यका उदय होनेसे लाभ हो सकता है, यदि ऐसा उदय न हो तो लाभ भी नहीं होता, पर अनर्थ तो अवश्य ही होता है। अन्यायसे प्रवृत्ति होने पर अशुभ कर्मका बन्धन होता है जिससे अवश्य ही अशुभ फल भोगने पडते है । अन्यायसे पापकर्म होता है, उनका फल भोगना ही पड़ता है, उसके बिना पापकर्मका क्षय नहीं होता । कहा है कि--
'अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नामुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि" ॥८॥ - -शुभ या अशुभ जैसा भी कार्य किया है उसे अवश्य ही भोगना पडता है। सेकडो कोटि कल्पोके व्यतीत हो जाने पर भी बिना भोगे हुए उन कर्मोंका क्षय नहीं होता ॥८॥
अतः न्याय आचरण करे, अन्यायसे दूर रहे | अन्यायमें विश्वासघात और हिंसा है, न्यायमे परोपकार । अन्यायसे आत्मा मलिन होती है अत कल्याणकी इच्छावाला न्याय आचरण करे । इस तरह गृहस्थधर्मके सामान्यतः जो गुण है उनमे प्रथम कह कर अब दूसरा विवाह प्रकारका