________________
गृहस्थ सामान्य धर्म : ३१ मूलार्थ छ अंतरंग (काम, क्रोधादि ) शत्रुओंको जीत कर (गृहस्थके) अविरुद्ध (इन्द्रियों के विषय रूप ) अर्थको अंगीकार करके इन्द्रियोंको जीतना चाहिए।
विवेचन - युक्ति विना प्रयोगमें लाये हुए काम, क्रोव, लोभ, मान, मद व हर्ष - यह छशिष्ट गृहस्थोंके अंतरंग शत्रु हैं इनका त्याग करना सामान्य धर्म है (गृहस्थ के समान्य धर्मका चौथा गुण गुणानुराग तथा पाचवा परिपुविजय है ) ।
काम- स्त्री के साथ भोगको काम कहते है। गृहस्थको स्वस्त्रीसे संतोष होना चाहिए। परली, कुमारिका व वेश्याका त्याग गृहस्थको जरूरी है ।
" परपरिगृहीतास्वनूढासु वा स्त्रीपु दुरभिसन्धिः कामः” । - परस्त्री, कुमारी, अथवा वेव्याके साथ दुष्ट अध्यवसाय को 'काम' नामक प्रथम अंतरंग शत्रु कहा है। कामवृत्तिको जीतनेवाला देव समान है। कामवासनासे कई प्रकारको हानि होती है-चल, वीर्य, व बुद्धि का नाम, अप्रीति, अनादर आदिकी उत्पत्ति होती है ।
क्रोध - क्रोध या गुस्सेसे कई कार्य बिना विचारे हो जाते हैं । क्रोव सब दुखोंका मूल है । क्रोधका सर्वथा त्याग गृहस्थ न कर सके तो भी टीकाकारके मतसे-
"अविचार्य परस्यात्मनो वाऽपायहेतुः क्रोधः" |
- अविचारसे उत्पन्न अन्यको अथवा स्वयं को दुख देनेवाली प्रवृत्ति 'क्रोध' है । इसका व्याग जरूरी है । क्रोध अग्नि समान हैं 1
1