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३२ : धर्मविन्दु
लोभ - लोभसे संसार में कई अनर्थ होते हैं । लोभकी वृत्ति जिससे अन्याय द्वारा भी पैसा कमानेकी वृत्ति होती है वह हानिप्रद तथा अनर्थकारी है । टीकाकार के मतसे
"ढानार्हेषु स्वचनाप्रदानमकारणपरधनग्रहणं चा लोभः ' ।
- दानके योग्य सुपात्रको दान न करना तथा निष्कारण परघनको हरण करना 'लोम' है । सुपात्रको दान देनेसे रोकनेवाली वृत्ति ही लोग है । पवन हरण लोभकी दूसरी परिभाषा है । न्यायसे जो धन मिले उससे सतुष्ट रहते हुए यथाशक्ति उसका सदुपयोग करना ही हितकर है।
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मान - अपने अल्प ज्ञानको सर्वज्ञता मान कर अन्योसे उम्र गिनना ही 'मान' है। अहकारमें विनयका लोप हो जाता है । वह अधिक ज्ञानको प्राप्त नहीं कर सकता । प्रत्येक स्थानसे ज्ञानका संग्रह करना चाहिए तथा निरंतर नम्रता रखें । टीकाकारके मतसे
"दुरभिनिवेशालोक्षो युक्तोकाग्रहण वा मानः” ।
-- दुराग्रहको छोडना नहीं तथा ज्ञानी जनके योग्य वचनको ग्रहण न करना 'मान' है |
मंद-यह एक प्रकारका मनका उन्माद है । भिन्न भिन्न वस्तुओंके आश्रयसे यह आठ प्रकारका है। कहा है
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“कुल व लैश्वर्य रूप-विद्यामिरात्माऽहङ्कारकरणं निबन्धनं वा सदः" ॥
- कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, व विद्याके कारण स्वयं अहंकार