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गृहस्थ सामान्य धर्म : २५
हानि ही है, लाभ कुछ भी नहीं । इहलोक व परलोक दोनोंके अर्थकी हानि होती है। कहा है
" जनानारागप्रभवत्वात् संपत्तीनामिति " ||
लोगोंकी प्रीतिसे ही संपत्तिकी उत्पत्ति होती है ।
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और भी जिन लोगों के साथ कन्याका लग्न नहीं करना चाहिए
इस प्रकार है-
“मूर्ख निर्धन- दूरस्थ - शूर मोक्षामिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणां तेषां कन्या न दीयते" ||९||
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- मूर्ख, निर्धन, दूर रहेनेवाला, लडाका या वीर, वैरागी और कन्यांकी उम्र से तीन गुना उनसे अधिक उम्रवालेको कन्या देना नहीं चाहिए ।
टीकाकार कहते हैं कि, लौकिक नीतिशास्त्र के अनुसार १२ वर्षकी कन्या और १६ वर्षका पुत्र होने पर विवाहयोग्य हो जाते हैं (यह विवाहकी वय उस समयके प्रचलित मतके अनुसार है अभी विवाह के योग्य वय भिन्न भिन्न मतोसे भिन्न भिन्न है । राज्यके कानूनोंसे ही कन्याकी कमसे कम आयु १४ व कहीं १५ है, तथा चरकी आयु भी १८ या २० वर्ष होना आवश्यक है )
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कुटुम्ब उत्पादन व पालन आदिके व्यवहारसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र-चार वर्ण बनाये है। योग्य वर्णविधान तथा युक्तिसे किया हुभा लग्न तथा अग्नि वं देवकी साक्षीसे किया हुआ पाणिग्रहण (हस्तमिलाप ) विवाह कहलाता है । विवाहके आठ गेंद इस प्रकार हैं
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