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गृहस्थ सामान्य धर्म : २३ तथा-समानकुल-शीलादिभिरगोत्रजैवैवाह्य___ मन्यत्र बहुविरुद्धेभ्य इति ||१२||
मूलार्थ-बहुत लोगोंसे जिनका विरोध है उनके सिवाय समान कुल, शीलवाले भिन्न गोत्री के साथ विवाह करे। '
विवेचन-लग्नका उच्च हेतु स्त्री व पुरुषको प्रेमवन्धनमें जोड कर उनका जीवन सुखमय बनानेका होता है। स्त्री अर्घागिनी कहलाती है जिसका अर्थ वह पुरुषके प्रत्येक कर्ममें सहायक होता है, जैसे प्रजनन, धार्मिक व अन्य सांसारिक वस्तुओमें। उत्तम लानके लिये जिन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है वे यहां दी गई है--
समानकुलशीलादिभिः-जिनके कुल व शील समान हो बरावर या एकसे हों वहींसे संबन्ध जोडे । वंशपरंपरा या कुलमें असमानता होनेसे असंतोष हो सकता है। यदि कन्या वैभववाडे व उच्च कुलगी हो तो पतिका, जिसका कुल निम्न है या सामाजिक स्थिति या आर्थिक स्थिति कमजोर है तो कन्या पतिकी अवगणना करेगी । यदि पति ऊचे कुल या अधिक वैभववाला हुआ तो गर्व करेगा व कन्याको हल्की दृष्टिले देखेगा। - समानशीलका अर्थ समान आचारविचार, रहनसहन,-वेषभूषा और भाषा है। दोनों कुलोमें मद्य, मांस, रात्रिभोजन आदिका त्याग हो । शील याने भाचारविचार व रहनसहन एकसे न होंगे वहां परस्पर मेल व प्रेमसाक्में कमी आनेकी पूर्ण संभावना है।