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१६ : धर्मविन्दु
भी समयमें लेशमात्र भी शंका नहीं कर सकता। इससे प्रसन्न चित्तवाले तथा श्रेष्ठ व प्रशस्त परिणाम या भावनावाले उस न्यायसे उपार्जन करनेवाले व्यक्तिको इस लोकमें भी महान् सुखकी प्राप्ति होती है ।
परलोकमें उसका हित कैसे होता है' विधिना तीर्थगमनात्विधिपूर्वक याने सत्कार व आदर सहित तीर्थाटन करनेसे । तीर्थ वह है जिससे दुःखरूपी महान् समुद्र तैरा जाय अर्थात् ऐसा पुरुपवर्गमानवयोनि, जिसमें पवित्र गुण रहे हुए है, और दीन व अनाथ आदि प्राणिवर्ग अर्थात् अन्य प्राणी वे 'तीर्थ' कहलाते हैं, वहां जाने पर ऐसे वर्गको सहायता देनेमें क्रयका व्यय होता हो वह 'तीर्थगमन' है। उससे उसका परलोकका हितसाधन होता है । अन्य धर्मों शास्त्रों में भी धार्मिक पुरुषके दानको यह स्थान दिया गया है, वह इस प्रकार है
'पात्रे दीनादिवर्गे च दान विधिवदिष्यते । पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् " ॥ ३ ॥
- आश्रित जनो को संतोष रहें, विरोध न हो तथा स्वत विरुद्ध कर्म न हो इस प्रकार सुपात्रको, दीन व अनाथ आदिको देना वह विधिवत् दान कहलाता है ॥ ३ ॥ '
इससे विपरीत अन्यायसे उपार्जित धनसे होनेवाली हानि बताते हैंअहितायैवान्यदिति ॥ ६ ॥
मूलार्थ - उपरोक्त रीतिसे न करके उससे भिन्न रीतिसे करे तो अहित ही होता है ।