________________
गृहस्थ सामान्य धर्म : १३
आदिकी अपेक्षासे जो न्याययुक्त अनुष्ठान है वह गृहस्थका सामान्य धर्म है || ३ ||
विवेचन-तत्र सामान्यतः - इन दोनोंमेंसे सामान्य, कुलकमा - मतं- पिता, पितामह आदि द्वारा क्रमशः सेवन किया हुआ, अपने समय तक चला आता हुआ, अनिन्द्यं - जिसकी निन्दा न की जा सके; निन्द्य वह है जिसका साधुजन - जो परलोक व पुनर्जन्मको मुख्य मानते हैं, अनादर करें, जैसे शराबकी दुकान । अनिन्द्यनिन्दारहित, विभवाद्यपेक्षया - वैभव- धनके होने पर भी न्याय्य आचरण, न्यायतः - न्यायसे; बिना मिलावटके शुद्ध, नाप व तोलमें बराबर और व्यवहार आदिमें उचित-जैसे व्याज आदि उचित दरसे लेना - इत्यादि प्रामाणिकता से ( कार्य करना ), अनुष्ठानंव्यापार, राजसेवा आदि ।
गृहस्थके सामान्य धर्मका वर्णन करते हुए कहते है कि वंश परंपरागत उचित कार्यको करते रहना चाहिए। वैभव, काल, क्षेत्र आदि के होने पर भी उसकी अपेक्षासे प्रत्येक कार्यको न्यायमे करें । जो सज्जनोकी सम्मतिवाले न्यायको मुख्य समझ कर अपने धन के तृतीयांशसे व्यापार करे, अपनी स्थिति देख कर उसके अनुसार व्यापार करें और राजसेवा या नौकरी करें तो उस सेवा के योग्य कार्यमें उचित रीति से प्रवृत्ति करें । वंशपरंपरागत अनिन्द्य आचरण करे, अत्यंत निपुण बुद्धि रखे इससे ही सब विघ्नोसे दूर रहे यही गृहस्थका धर्म है । दीन, अनाथ आदिके उपयोगके येभ्य तथा धर्मका साधन होनेसे गृहस्थको धन उपार्जन करना चाहिए। -