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गृहस्थ सामान्य धर्म : ११
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'अविरुद्ध वचनवाला अनुष्ठान धर्म है' - यह व्यवहार नयकी अपेक्षा कहा है । निश्चय नयसे कहे तो ऐसे शुद्ध अनुष्ठान से उत्पन्न होनेवाले कर्म मलको नाश करनेसे, सम्यग्दर्शन आदि जिससे निर्वाणके बीजरूप फलकी प्राप्ति हो ऐसी जीवशुद्धि ही धर्म हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो जिससे जीवकी परिणति शुद्ध हो, राग, द्वेष कम हो ऐसा ज्ञान, दर्शन व चारित्र प्राप्त करनेका कोई भी मार्ग धर्म है ।
अब धर्मके भेद व प्रभेद कहते हैंसोऽयमनुष्ठातृभेदात् द्विविधो गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चेति ॥ १ ॥
मूलार्थ - यह धर्म अनुष्ठान करनेवालोंके भेदसे दो प्रकारका है, गृहस्थधर्म और यति धर्म ॥१॥
विवेचन -- सः - वह कहा हुआ, अयं कर्त्ताके हृदय में प्रत्यक्ष
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रूपसे स्थित यह धर्म, अनुष्ठातृभेदात्-धर्म का अनुष्ठान करनेवाले पुरुषोंके भेदसे, द्विविधः - दो प्रकारका है, गृहस्थधर्म :- घर पर रहनेवाला गृहस्थ, उसका दैनिक तथा पर्वादि निमित्तसे होनेवाला धर्म 'गृहस्थधर्म' कहलाता है । यतिधर्मश्च - यतिका धर्म यतिधर्म, जो देह मात्रके आराम से सम्यग्ज्ञानरूप नौका द्वारा तृष्णारूप सरिताको तैरनेका प्रयत्न करे वह यति, उसका धर्म या गुरुके साथ रह कर उसकी भक्ति व बहुमान आदि करता हैं वह 'यतिधर्म' कहलाता है ।