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१२ : धर्मविन्दु
धर्म एक है, करनेवाले भिन्न भिन्न स्थितिके है, अतः धर्मके दो मुल्य भेद कहे है । जिस कामको गृहस्थ करता है वह गृहस्थधर्म व यति करे सो यतिधर्म । ।
गृहस्थवर्मको ही श्रावक धर्म रहते हैं । वे भिन्न भिन्न स्थितिके होनेसे से दो प्रकारका धर्म कहा है--
तन्त्र गृहस्थधर्मोऽपि द्विविधः
सामान्यतो विशेषतश्चेति ॥२॥ मूलार्थ-उसमें गृहस्थधर्म भी दो प्रकारका है; सामान्य और विशेप ।।२।।
विवेचन-जो धर्म सर्व सद्गृहस्थोंद्वारा पाला जा सके वह सामान्य है। अणुव्रत आदि महान गुणोंकी प्राप्तिके लिये सर्वमान्य सामान्य गुण पहले प्राप्त करना चाहिए । उनको बतलानेवाला सामान्य गृहस्थ धर्म है । जो पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षात्रत-इस प्रकार समकितके बारह व्रत अंगीकार करता है वह विशेष धर्मका पालन करनेवाला है।
इस अध्यायकी समाप्ति तक ग्रन्थकार सामान्य गृहस्थधर्मका वर्णन करते हैं -
तत्र सामान्यतो गृहस्थधर्मः कुल क्रमागतमनिन्द्यविभवाद्यपेक्षया न्यायतोऽतुष्टानमिति ॥३॥
मूलार्थ-कुल परंपरासे आया हुआ, निन्दारहित, वैभव